भारतवर्ष में हर दिन, हर पल, हर क्षण किसी न किसी उत्सव का संदेश लेकर आता है। हमारी संस्कृति भौतिक आनंद तक सीमित नहीं है, यह जीवन को सत्य, धर्म, प्रेम और चेतना के साथ जीने का मार्ग दिखाती है। यही कारण है कि हमारे यहां हर पर्व केवल उल्लास का माध्यम नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जागृति और नैतिक चेतना का अवसर होता है। दीपावली इसी परंपरा का अनुपम उदाहरण है। दीपावली केवल रोशनी, मिठाइयाँ और भव्य सजावट का पर्व नहीं है। यह अंधकार पर प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि हमारे भीतर भी अज्ञान, द्वेष और लोभ का अंधकार मौजूद है, जिसे हमें मिटाकर अपने हृदय और जीवन को प्रकाशमय बना सकते हैं। लेकिन वर्तमान समय में दीपावली का स्वरूप बदलता जा रहा है। दीपावली की रात, जब पटाखों की गड़गड़ाहट हर ओर गूंजती है, तो यह केवल उत्सव का प्रतीक नहीं रह जाता फिर यह न चाहकर भी ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण और मानसिक असंतुलन का कारण बन जाता है।
पटाखों की तीव्र आवाज का प्रभाव केवल हम पर ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण पर्यावरण पर पड़ता है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, पटाखों से निकलने वाला ध्वनि स्तर 125 से 160 डेसिबल तक पहुँच जाता है। तुलनात्मक देखे तो हमारा सामान्य वार्तालाप लगभग 60 डेसिबल और शहर का ट्रैफिक लगभग 80 डेसिबल तक होता है।इतनी तीव्र आवाज से कान और तंत्रिका तंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। वृद्धजन, छोटे बच्चे और बीमार लोग इसे सहन नहीं कर पाते। हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मानसिक तनाव और नींद में बाधा जैसी समस्याएँ इस समय बढ़ जाती हैं। सिर्फ हम ही नहीं, पशु-पक्षी और अन्य जीव भी इससे प्रभावित होते हैं। अचानक तेज आवाज से उनकी संवेदनाएँ झकझोर जाती हैं। पक्षियों का उड़ान पैटर्न बदल जाता है, छोटे जीव भयभीत होकर अपने सुरक्षित आश्रयों में छुप जाते हैं। बड़े जानवर भी तनाव और डर के कारण उनके प्राकृतिक व्यवहार में भी बदलाव दिखायी देता है। ऐसी तेज आवाजें केवल क्षणिक असुविधा ही नहीं, बल्कि स्थायी श्रवण हानि, तनाव, अनिद्रा और हृदय रोग जैसी गंभीर समस्याओं का कारण बन सकती हैं। वृद्धजन, छोटे बच्चे और बीमार लोग इस ध्वनि प्रदूषण से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
लेकिन समस्या यहीं तक सीमित नहीं है। प्रकृति और जीव-जगत भी इससे अत्यधिक पीड़ित होता है। पशु-पक्षी ध्वनि के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते हैं। अचानक होने वाली तेज आवाजें उनके तंत्रिका तंत्र और दिशा-ज्ञान को प्रभावित करती हैं। पक्षियों के झुंड भयभीत होकर अपने बसेरों से उड़ते हैं, कई बार अंधेरे में भ्रमित होकर इमारतों या तारों से टकरा जाते हैं जिससे उनकी मौत भी हो जाती है। ध्वनि प्रदूषण केवल जीव-जगत पर नहीं, बल्कि वातावरण और मानसिक संतुलन पर भी प्रभाव डालता है। निरंतर उच्च ध्वनि हमारे मस्तिष्क में कोर्टिसोल (तनाव हार्मोन) की मात्रा बढ़ा देती है, जिससे चिंता, चिड़चिड़ापन और अस्थिरता बढ़ती है। यह तनाव धीरे-धीरे समाज के सामूहिक मन पर भी असर डालता है जिससे क्रोध, असहिष्णुता और असंवेदनशीलता बढ़ती है।
पटाखों से निकलने वाला धुआँ घातक होता है। इसमें कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और भारी धातुओं के कण (जैसे सीसा और बैरियम) शामिल होते हैं। ये गैसें और सूक्ष्म कण वातावरण में मिलकर वायु गुणवत्ता को अत्यंत खराब कर देते हैं। वैज्ञानिक रिपोर्टों के अनुसार, दीपावली की रात के बाद दिल्ली और अन्य महानगरों में पीएम 2.5 और पीएम 10 के स्तर में 4 से 8 गुना वृद्धि दर्ज की जाती है। ध्वनि केवल कानों तक सीमित नहीं होती, यह चेतना तक पहुँचने वाली शक्ति है। हमारे वैदिक ग्रंथों में कहा गया है कि “नाद ब्रह्म” अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का मूल स्वर ही नाद है। जब यह नाद संतुलित, मधुर और सकारात्मक होता है, तब यह सृष्टि में सामंजस्य उत्पन्न करता है लेकिन जब ध्वनि असंतुलित, हिंसक और तीव्र होती है, तो यह प्रकृति के ताने-बाने में विकार उत्पन्न करती है।
जहाँ संगीत और शांति का नाद होना चाहिए, वहाँ अब धमाके और धुएँ का शोर होने लगा है। यह शोर हमारी आत्मा की आवाज को दबा देता है, हमारी संवेदना को कुंठित करता है इसलिए आवश्यक है कि हम दीपावली को वास्तविक स्वरूप में मनाएँ, जहाँ दीपक का प्रकाश हमारी चेतना को आलोकित करे, न कि पटाखों की आवाज हमारे मन और वातावरण को प्रदूषित करे। हमें समझना होगा कि पृथ्वी केवल हमारी नहीं, बल्कि उन सभी जीवों की भी है जो यहाँ रहते हैं। पटाखों से निकलने वाला धुआँ कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों से पूरा वातावरण भर जाता है। यह वायु प्रदूषण हमारे फेफड़ों, त्वचा और समग्र स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। यह प्रदूषित वायु केवल मनुष्यों में दमघोंटू सांस, खांसी, एलर्जी, अस्थमा और हृदय रोग का कारण नहीं बनती, बल्कि पेड़ों, फसलों और जल स्रोतों को भी नुकसान पहुँचाती है। जब यह धुआँ नमी के साथ मिलकर अम्लीय वर्षा का रूप लेता है, तो मिट्टी की उर्वरता घटती है, पौधों की पत्तियाँ झुलस जाती हैं और नदियाँ प्रदूषित होती हैं।
पटाखों से निकलने वाला धुआँ, राख और रासायनिक अवशेष वर्षा या हवा के माध्यम से नदियों में पहुँच जाते हैं, जिससे जल अत्यधिक प्रदूषित हो जाता है। इन पटाखों में प्रयुक्त सीसा, बैरियम, तांबा और एल्युमिनियम जैसे भारी धातु जल में घुलकर उसे विषैला बना देते हैं। इससे न केवल जल की गुणवत्ता घटती है, बल्कि जलीय जीवों का जीवन भी संकट में पड़ जाता है। पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटने से मछलियाँ और अन्य प्राणी मरने लगते हैं। चाहे दीपावली हो, नया वर्ष, क्रिसमस या कोई अन्य पर्व, मुझे लगता है कि पटाखों पर नियंत्रित रूप से ही अनुमति होनी चाहिए। यदि लोग पटाखे जलाकर खुशी जाहिर करना चाहते हैं, तो उन्हें सीमित मात्रा में, पर्यावरण के लिए सुरक्षित पटाखों तक ही सीमित रखा जाए। जो कंपनियां इन्हें बनाती हैं, उन्हें कड़े नियमों का पालन करना अनिवार्य हो और नियमों का उल्लंघन करने पर कठोर दंड लगाया जाए। बेचने वालों और खरीदने वालों पर भी दंड का प्रावधान होना चाहिए।
सख्त नियंत्रण और अनुशासन में ही पटाखों का निर्माण और बिक्री हो, तभी इसका पर्यावरण पर असर कम होगा और जनता पर जागरूकता का दबाव बनेगा। पहले से ही पटाखों के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के प्रति जागरूकता बढ़ी है, लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। इस बार वायु प्रदूषण का स्तर 500 से भी अधिक पार कर गया। चाहे दिल्ली हो या अन्य महानगर, वायु प्रदूषण चिंतन का विषय है। हमारा भारत हरियाली, खुशहाली और प्रदूषण-मुक्त होना चाहिए। प्रदूषण चाहे बाहर का हो या भीतर का, हमें इसे नियंत्रित करना है। इसलिए, अगर पटाखे जलाए जाएँ तो वह भी ग्रीन, आत्मअनुशासन के साथ और जिम्मेदारीपूर्वक हो। पटाखे जलाएँ, लेकिन साथ ही पेड़ भी लगाएँ। यही सही दिशा है, यही सच्ची चेतना है।दीपावली का दीपक केवल घर की रोशनी के लिए नहीं, बल्कि हमारे हृदय और चेतना को प्रकाशित करने के लिए है। यदि यह प्रकाश दूसरों के लिए भय और असंतुलन पैदा करे, तो वह वास्तविक प्रकाश नहीं, अंधकार है। दीपावली का उद्देश्य है अज्ञान, द्वेष और लोभ का नाश करना है लेकिन जब हम पटाखों से अत्यधिक शोर उत्पन्न करते हैं, तो यह न केवल हमारे भीतर की शांति को बाधित करता है, बल्कि प्रकृति और अन्य प्राणियों के लिए भी भय का कारण बन जाता है। वास्तविक उत्सव वह है जो सब जीवों के कल्याण और सुख का कारण बने। याद रखें तेज आवाज और प्रदूषण से हमारी चेतना और मानसिक संतुलन प्रभावित होता है और जब हम दूसरों के जीवन और पर्यावरण की अनदेखी करते हैं, तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति बाधित होती है।
श्रीराम जी का अयोध्या लौटना इस पर्व का प्रतीक है। अयोध्यावासियों ने अपने घरों और हृदयों को दीपों से रोशन किया। यह केवल उल्लास का माध्यम नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना और उत्तरदायित्व का संदेश था। साथ ही, दीपावली समुद्र मंथन से मां लक्ष्मी जी के प्राकट्य का पर्व भी है। यह संपत्ति और समृद्धि का उत्सव तो है साथ ही संतुलन, प्रकृति के प्रति सम्मान और जीवन के आध्यात्मिक मूल्य का संदेश देता है। यदि हम इस पर्व को प्राकृतिक सामंजस्य और संवेदनशीलता के साथ मनाएँ, तो हम न केवल पर्यावरण की रक्षा करेंगे, बल्कि अपने भीतर की आध्यात्मिक उन्नति और चेतना को भी सुदृढ़ करेंगा। आइए दीपावली को हम केवल घर और हृदय की रोशनी का पर्व ही नहीं, बल्कि धरती पर रहने वाले सभी जीवों के जीवन में दिव्यता और शांति फैलाने का पर्व बनाएं। जहाँ हम भी खुश रहें और धरती पर रहने वाला हर प्राणी भी स्वस्थ और प्रसन्न रहे। यही वास्तविक दीपावली है जो शांति, चेतना, संस्कृति और जिम्मेदारी का संदेश देती है। जब हम यह समझेंगे, तभी यह पर्व अपने वास्तविक उद्देश्य और महिमा में खिल उठेगा। सच्ची खुशियाँ वही हैं, जो सबके जीवन में प्रकाश, स्वास्थ्य और शांति लेकर आएँ और यही तो दिवाली है। सभी जीवों के कल्याण के साथ दीपावली मनाएँ। दीपक का प्रकाश चेतना को आलोकित करे, न कि पटाखों की आवाज वातावरण को प्रदूषित करे। दीपावली प्रकाश का पर्व है, न कि ध्वनि और प्रदूषण का संकट। आइए, यह दीपावली शांति, प्रेम और संवेदनशीलता का संदेश बने।
-स्वामी चिदानन्द सरस्वती
परमाध्यक्ष परमार्थ निकेतन, ऋषिकेश।
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